बद्धजीवका कर्मक्षेत्र अर्जुन प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान तथा ज्ञेय के विषय में परिवर्तन होते रहते हैं, फिर भी वह व्यक्तिवही रहता है। इस जानने का इच्छुक था। जब उसने इनके विषय में पूछा तो प्रकारकर्म-क्षेत्र के ज्ञाता तथा वास्तविक कर्म-क्षेत्र में अन्तर कृष्ण ने कहा कि यहशरीरक्षेत्र कहलाता है और इसशरीरको है। एकबद्धजीव जान सकता है किवह अपने शरीरसे भिन्न जानने वाला क्षेत्रज्ञ है। यह शरीरबद्धजीव के लिए कर्म-क्षेत्र है। बताया गया है कि जीव शरीर के भीतर है और यह शरीर है। बद्धजीव इस संसार में बंधा हुआ है और वह भौतिक बालक से किशोर, किशोरसे तरुण तथा तरुण से वृद्ध के रूप प्रकृति पर अपना प्रभुत्व प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इस में बदलता जाता है और शरीरधारी जानता है कि शरीर प्रकार प्रकृति पर प्रभुत्व दिखाने की क्षमता के अनुसार उसे परिवर्तित हो रहा है। स्वामी स्पष्टत क्षेत्रज्ञ है। कर्म-क्षेत्र प्राप्त होता है। यहकर्म-क्षेत्र शरीर है। औरयहशरीर कभी-कभी हम सोचते हैं। मैं सुखी हूं, मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री क्या है? शरीर इन्द्रियों से बना हुआ है। बद्धजीव इन्द्रियतृप्ति हूं। यह ज्ञाता की शारीरिक उपाधियां हैं, लेकिन ज्ञाता शरीर से चाहता है, और इन्द्रियतृप्ति को भोगने की क्षमता के अनुसार भिन्न होता है। भले ही हम तरह-तरह की वस्तुएं प्रयोग में ही उसे शरीर या कर्म-क्षेत्र प्रदान किया जाता है। इसीलिए लाएं-जैसे कपड़े इत्यादि, लेकिन हम जानते हैं कि हम इन बद्धजीव के लिए शरीर क्षेत्र अथवा कर्मक्षेत्र कहलाता है। वस्तुओं से भिन्न हैं। इसी प्रकार, थोड़ा विचार करने पर हम जो व्यक्तिअपने को शरीर मानता है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता यह भी जानते हैं कि हम शरीर से भिन्न हैं। मैं, तुम या अन्य है। क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ अथवा शरीर और शरीर के ज्ञाता (देही) कोई जिसने शरीर धारण कर रखा है, क्षेत्रज्ञ कहलाता हैका अन्तर समझ पाना कठिन नहीं है। कोई भी व्यक्तिसोच अर्थात वह कर्म-क्षेत्र का ज्ञाता है और यह शरीर क्षेत्र हैसकता है कि बाल्यकाल से वृद्धावस्था तक उसमें अनेक साक्षात कर्म-क्षेत्र है
बद्धजीवका कर्मक्षेत्र