अयोध्या में जनसुविधाओं की अनदेखी कब तक?


शीतला सिंह
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अयोध्या विवाद के रामलला विराजमान के पक्ष में निपटारे के बावजूद न्यायालय के आदेश से सुरक्षा व यथास्थिति बनाये रखने की व्यवस्था के तहत विवादित रहे स्थल की घेराबंदी यथावत है और वहां आने-जाने पर लगी अविराम पाबंदियों में अभी तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। उसके अगल-बगल की सड़कों के किनारे अभी भी सीमित प्रवेश की ही व्यवस्था है। यह इस अर्थ में आश्चर्यजनक है कि विवाद से जुड़े सारे प्रकरण निर्णीत हो चुके हैं और किसी भी स्तर पर कोई न्यायिक अवरोध विद्यमान नहीं है।प्रसंगवश, तीन जनवरी, 1993 को अध्यादेश द्वारा किये गये अयोध्या विशिष्ट क्षेत्र अधिग्रहण में विवादित स्थल भी अधिग्रहीत कर लिया गया था। इस आपत्ति को, कि मस्जिद का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता, न्यायालय ने यह कहकर नकार दिया था कि इस्लाम में नमाज के लिए मस्जिद आवश्यक नहीं है। अधिग्रहण के बावजूद उच्च न्यायालय में तीन जजों के समक्ष यह विवाद इसलिए बना रह गया था क्योंकि अधिग्रहण अधिनियम की जिस धारा में उसकी समाप्ति का प्रावधान था, उसमें प्रभावितों के साथ इंसाफ के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं थी। अब, विवादित स्थल की बाबत सुप्रीम निर्णय के बाद भी शेष अधिग्रहीत क्षेत्र के लिए न्यायालय के पुराने आदेश को निष्प्रभावी करने की व्यवस्था नहीं हो पाई है। संसद ने भी इस सम्बन्धी कानून को समाप्त करने का कोई निर्णय नहीं लिया है, इसलिए न्यायिक दृष्टि से वह अभी भी विद्यमान है। नई व्यवस्था के अन्तर्गत अयोध्या व फैजाबाद को मिलाकर नगर निगम बना दिया गया और उसे क्षेत्र विस्तारित कर दिया गया है। फलस्वरूप नगरनिगम के लिए अपेक्षित जनसंख्या व क्षेत्र को लेकर कोई संकट नहीं है। जिस फैजाबाद जिले में अयोध्या एक छोटी-सी नगरपालिका हुआ करती थी, वह भी अब अयोध्या नाम से जिला बन गया है। लेकिन मूल अयोध्या में स्थानीय लोगों, पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए प्रतिबन्धों का समापन नहीं हो पाया है। वहां बिना वाहनों के तो निद्वंद्व भ्रमण किया जा सकता है, लेकिन सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के अतिरिक्त कुछ सीमित लोगों को ही वाहनों के साथ आने-जाने की अनुमति है-आम लोग, श्रद्धालु, तीर्थयात्री और पर्यटक सब इससे वंचित हैं। प्रशासनिक लिहाज से अयोध्या को सामान्य और विवादित (जिसे रेड जोन कहा जाता है) के अलावा यलो जोन में बांटा गया है। कई प्रमुख मठ-मन्दिरों के साथ हनुमानगढ़ी भी, जहां सबसे अधिक यात्री जाते हैं, यलोजोन में ही है-दूसरे प्रमुख स्थल कनकभवन और बड़ा स्थान भी इसी क्षेत्र में हैं। मुस्लिमों का जो मुहल्ला थाना रामजन्मभूमि क्षेत्र में है, उसका बड़ा हिस्सा भी इस जोन में ही है। अयोध्या विवाद सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन था, तो इस जोन में यातायात प्रतिबन्ध और कड़े कर दिये गये थे। मुख्य गलियों को घेर दिया गया था। अभी भी शिकायतियों के लिए वाहन से निर्बाध थाने पहुंचने की सुविधा नहीं ही है। मेलों के अवसरों पर भी लोगों को अबाधित रूप से अपनी पसन्द के मठों-मन्दिरों में जाने की सहूलियत नहीं मिल पाती। गोकुल भवन जैसा सर्वधर्म समभाव के लिए समर्पित बड़ा मन्दिर भी, जो विवादित क्षेत्र के बगल में ही है, इससे प्रभावित है। 
सर्वोच्र्च न्यायालय के निर्णय के बाद मंदिर-निर्माण के लिए बनने वाला ट्रस्ट भी अभी गठित नहीं हो पाया है। ऐसे में यह सवाल शेष ही है कि राम की आस्थाओं को स्वीकार करके  श्वहींश् भव्य, आकर्षक और अभूतपूर्व मन्दिर बनाने के प्रयत्न कैसे सफल होंगे? विवादित क्षेत्र मात्र 2.77 एकड़ तक सीमित था। रामचबूतरा और सीतारसोई आदि को सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ  बोर्ड ने अपने मुकदमे में शामिल ही नहीं किया था, लेकिन यह निर्विवाद क्षेत्र भी अधिग्रहीत क्षेत्र में शामिल है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि राममंदिर निर्माण के लिए जो ट्रस्ट बनेगा, क्या वह विवादित क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा? अगर नहीं तो क्या वह ट्रस्ट 68 एकड़ अन्य अधिग्रहीत क्षेत्र का, जिसका प्रबन्धन केन्द्र सरकार के पदेन रिसीवर अयोध्या के मंडलायुक्त द्वारा किया जाता है, कोई भाग रिसीवर की इच्छा और सहमति के बगैर आबंटित करने का अधिकारी होगा? हम जानते हैं कि विवादित रही 2.77 एकड़ और अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून के तहत उपलब्ध शेष भूमि के भावी प्रबन्धन का फैसला अन्ततरू केन्द्र सरकार को ही करना है। विवाद के अन्त के बाद उम्मीद थी कि कम से कम पर्यटकों और तीर्थयात्रियों का इस क्षेत्र में निर्बाध आगमन व भ्रमण सुनिश्चित हो सकेगा-चूंकि यह क्षेत्र मुख्य रूप से अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण के अन्तर्गत है और उस पर कोई न्यायिक प्रकरण विचाराधीन नहीं है। लेकिन वहां प्रशासनिक आदेश अभी भी सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व निर्देशों के तहत ही लागू हैं। वह पुरानी व्यवस्था भी, जिसके तहत रिसीवर विवाद के पक्षकारों को साथ लेकर हर रविवार को निरीक्षण के लिए पहुंचते थे, यथापूर्व विद्यमान है, जबकि विवाद के निस्तारण के बाद इन पक्षकारों की कोई भूमिका ही नहीं है। रामलला विराजमान के दर्शन के लिए बना लोहे का कठघरा काफी बड़ा है और उक्त 2.77 एकड़ के पहले से ही शुरू होता है। सवाल है कि मंदिर निर्माण शुरू होगा तो ऐसी कौन सी व्यवस्था होगी, जिससे श्रद्धालुओं को इस कठघरे से मुक्ति मिल सके। इस कठघरे से सबसे ज्यादा कठिनाई वरिष्ठ नागरिकों यानी वृद्धजनों और असमर्थ दिव्यांगों को है, जो अपने पैरों पर चलकर दर्शनस्थल तक पहुंच ही नहीं सकते। उनकी कठिनाइयों पर कब और कैसे विचार किया जायेगा? अयोध्या के विकास की बात बहुत की जाती है, लेकिन अभी उसका स्वरूप ही निर्धारित नहीं है। इस धर्मनगरीे को औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित करके जनाकांक्षाओं की पूर्ति संभव नहीं है, जबकि इसके पुराने मठ-मन्दिर, जो जमीनदारों या पंचायतों द्वारा बनवाये गये थे, धनाभाव के कारण साफ-सफाई तथा मरम्मत के अभाव में टूटने व गिरने की स्थिति में हैं। एक समय उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल मधु चेन्ना रेड्डी ने दक्षिण की भांति अयोध्या के मन्दिरों के सरकारी प्रबन्धन का प्रस्ताव किया तो अयोध्या के साधु-सन्तों व महन्तों ने उसे एक स्वर से नकार दिया था, क्योंकि इससे मन्दिरों पर उनका स्वामित्व और वर्चस्व समाप्त हो जाता। जो चौदहकोसी व पंचकोसी परिक्रमाएं और रामनवमी, कार्तिक पूर्णिमा व रामविवाह मेले होते हैं, उनमें भी फिलहाल, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि उनका कोई ऐसा स्वरूप बने, जिससे अयोध्या के गुण, गरिमा व महत्व की रक्षा या वृद्धि हो। अयोध्या तीर्थरक्षिणी सभा अंग्रेजों ने जार्ज षष्टम् के समय बनाई थी और उसने धर्मस्थलों को चिन्हित किया था। लेकिन अब वह भी कुछ नया करने में समर्थ नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई तीन महीने की अवधि में अब तक मंदिर निर्माण के स्वरूपनिर्धारण और प्रबन्धन के लिए ट्रस्ट नहीं बन पाया तो उसका मुख्य कारण उसमें स्थान चाहने वालों के बीच वर्चस्व की होड़ है। इस होड़ के समाधान का रास्ता भी अभी नहीं ही निकल पाया है। बेहतर यह था कि विवाद निस्तारण के पश्चात अयोध्या के लोगों, तीर्थयात्रियों, श्रद्धालुओं और पर्यटकों वगैरह को अहसास होता कि उनकी पहुंच व सुविधाओं का विस्तार हुआ है। साथ ही केन्द्र सरकार के अधिग्रहीत क्षेत्र के उस भाग से, जो विवाद का अंग नहीं था, जुड़ी योजनाओं को अन्तिम रूप दिया जाता। लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा। सवाल है कि स्थानीय लोगों तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की सुविधाओं के विस्तार के प्रश्न को कब तक अनदेखा किया जाता रहेगा? 


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